सोमवार, 5 अक्तूबर 2015

सुर-२७८ : "गोंडवाना की रानी दुर्गावती... शौर्य साहस की धनी...!!!"

करते नमन
उस वीरांगना को
जिसने स्वराज्य और
आत्मसम्मान की खातिर
खुद अपने हाथों
मार कटार सीने में
हंसकर जान अपनी गंवा दी

न समझा
कभी भी अबला
अपनी हस्ती को
थाम तलावर हाथों में
शत्रु से लड़ती रही 
सारी दुनिया के समक्ष
नारी की नई छवि बना दी
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मित्रों...,

चन्देलों की बेटी थी,
गौंडवाने की रानी थी,
चण्डी थी रणचण्डी थी,
वह दुर्गावती भवानी थी।

महान कवयित्री ‘सुभद्रा कुमारी चौहान’ की कलम से वीरांगना ‘रानी दुर्गावती’ के सम्मान में लिखी गयी ये पंक्तियाँ स्वयं ही अपने आप में उस असीम शौर्य की स्वामिनी के सुदृढ़ चरित्र को प्रदर्शित करती हैं जो आज से लगभग चार सौ साल पहले इस धरती पर जन्मी थी और अपने जीवन चरित से उन्होंने ‘स्त्री शक्ति’ शब्द की लाज रखी जिसके कारण अब तक वो याद की जाती कि अकेले अपने दम पर न सिर्फ़ अपने राजकाज का कुशल संचालन किया बल्कि यदि किसी ने उनके राज्य पर हमला कर उसे अपने कब्जे में लेने की सोची तो उसे धूल चटाने में कोई कोर-कसर न रखी वाकई, जब उनकी कथा पढ़ो तो अहसास होता कि नारी के लिये कोमल, कमजोर, अबला पर्याय गढ़ समाज ने उसको हाशिये पर रखने की जो साजिश की तो वो भी धीरे-धीरे अपनी उस भीतरी ताकत को भूलती चली गयी जिसकी वजह से कभी उसने ही अपने अस्तित्व की लड़ाई तक अपने ही कांधों पर स्वयं ही लड़ी और इतिहास में उन सभी वीर नायिकाओं की शौर्य गाथा सुनहरे हर्फों में दर्ज हुई जिसे पढ़कर ज्ञात होता कि ये सब महिलायें भले ही किसी राजपरिवार से ताल्लुक रखती हो लेकिन जब इनके उपर मुश्किल आई तो फिर किसी भी आफत से किसी हाल न डरी और अकेले खड़े होकर  राज की बागड़ोर अपने हाथों में लेकर न सिर्फ़ अपनी प्रजा का बल्कि अपनी संतान का भी पालन-पोषण किया इस तरह ‘एकल पालक’ की नींव भी रखी

‘दुर्गावती’ का जनम दुर्गाष्टमी के दिन आज की तारीख ०५ अक्टूबर १५२४ को कालिंजर के राजा ‘कीर्तिसिंह चंदेल’ के घर हुआ और आदिशक्ति दुर्गा की पवित्र तिथि को पैदा होने के कारण ही इनका नाम ‘दुर्गावती’ रखा तथा ये उनकी एकमात्र संतान थी तब भी पिता ने कोई भी भेदभाव न रखते हुये उनको ऐसी शिक्षा-दीक्षा दी जिससे उनका नैतिक बल, चारित्रिक गठन सशक्त हुआ जो आगे चल उनका संबल बना उनको हालातों के आगे न झुकने की प्रेरणा देता रहा क्योंकि उनके पिता ने तो उनके बडे होने पर गढ़मंडला के राजा ‘संग्राम शाह’ के पुत्र ‘दलपतशाह’ से विवाह कर अपना फ़र्ज पूरा कर दिया लेकिन शायद, उनके भाग्य में कठिनाइयों का सामना कर स्वयं अपने भाग्य की निर्मात्री बनना था तभी तो अभी वो ब्याह के बाद सुख के चार दिन भी न देख सकी थी कि उनके पति का निधन हो गया ऐसे में उनके नाज़ुक कंधों के उपर अपनी संतान सहित पूरे राज्य का भार भी आ गया लेकिन उन्होंने धैर्य व हिम्मत से काम लेते हुये उस कठिन घड़ी का सामना किया और लगभग सोलह बरसों तक अपने राज का कुशल संचालन किया इस बीच उनके सामने जो भी दिक्कतें आई उन्होंने किसी के भी आगे घुटने न टेके और जो भी उनकी राह में रोड़ा बनकर आया सबको उन्होंने अपने हाथों से धक्का देकर ठेल दिया जबकि आज भी बहुत सी स्त्रियाँ आत्मनिर्भर होकर भी अकेले केवल अपने परिवार को चलाने में खुद को कमतर समझती हैं पर, ‘दुर्गावती’ ने तो एकाकी पूरे एक विशाल साम्राज्य को चला सम्राज्ञी का ख़िताब पाया

उस समय देश में मुगलों का साम्राज्य था तो उस वक्त के बादशाह ‘अकबर’ गोंडवाना की इस ‘रानी दुर्गावती’ को अपनी पटरानी बनाना चाहता था जिसके लिये उसने उनके राज्य पर हमला भी कर दिया फिर भी रानी ने आत्मसमर्पण के स्थान पर अंतिम सांस तक लड़ते हुये आत्मबलिदान कर अपनी जान गंवाने का निश्चय किया और हाथ में तलवार थाम योद्धा का चोला पहन रण के मैदान में आ गयी फिर जितनी उनके भीतर हिम्मत थी उतने ही जोर से उसने शत्रुओं का संहार किया और जब लड़ते-लड़ते ये महसूस हुआ कि अब इससे अधिक देर तक अपनी इज्जत को बचा पाना सम्भव नहीं तो एक पल गंवाये बिना अपने कमर में बंधी हुई कटार अपने ही हाथों से बगैर उफ़ किये अपने सीने में उतार ली पर, किसी भी कीमत पर अपने आपको झुकने न दिया---

थर-थर दुश्मन कांपे,
पग-पग भागे अत्याचार,
नरमुण्डों की झडी लगाई,
लाशें बिछाई कई हजार,
जब विपदा घिर आई चहुंओर,
सीने मे खंजर लिया उतार।

जो कहते हैं कि औरत तो ‘अबला’ होती उनके सामने ‘बहादुरी’ की नई मिसाल कायम की कि यदि स्त्री अपनी आत्मशक्ति को पहचान ले और ये तय कर ले कि वो किसी भी हाल समझौता न करेगी तो फिर दुनिया की कोई भी ताकत या किस्मत की कोई भी परीक्षा उसे अपने पथ से डिगा नहीं सकती यही किया ‘रानी दुर्गावती’ ने आखिरी पल में कि प्राण तो दे दिये पर, आबरू अपनी बचा ली जबकि आज भी कई महिलाएं बडे सामान्य हालातों में डर जाती उसका सामना करना नहीं चाहती लेकिन जब हम उनको पढ़ते तो गर्व से सर ऊंचा कर दोहराते---

जन जन में रानी ही रानी
वह तीर थी,तलवार थी,
भालों और तोपों का वार थी,
फुफकार थी, हुंकार थी,
शत्रु का संहार थी

सच, अद्भुत ओजमयी तेजस्वी मूर्ति थी वो जिनके स्मरण से ही मस्तक गर्व से ऊंचा और सीना कुछ अधिक चौड़ा हो जाता... आँखों में श्रद्धा की लहर और रगों में साहस का लहू दौड़ जाता... जो हमें जीना सीखता और डरकर पीछे न हटना ये अनमोल सबक भी देता... तो आज उनके जन्मदिवस पर उनको शत-शत नमन... :) :) :) !!!    
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०५ अक्टूबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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